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बिहार में भाजपा की उलझनें

उपेन्द्र प्रसाद
एजेंसी: बिहार में भाजपा के अंदर नीतीश के विरोधियों का उत्साह ठंढा पड़ गया है। वे बिहार के मुख्यमंत्री के खिलाफ बयानबाजी का काई अवसर नहीं गंवाते थे। पटना में जब भाजपा के सभी मोर्चे की बैठक एक साथ होने वाली थी और अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा के साथ-साथ अमित शाह के भी उसमें शिरकत करने की खबर थी, तो भाजपा के नीतीश विरोधी तत्व बहुत उत्साहित थे। उन्हें लगा कि भाजपा बिहार पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है और यहां की राजनीति में कुछ उलटफेर होगा। लालू यादव के सबसे नजदीकी भोला यादव की गिरफ्तारी से भी उनमें नई उम्मीदें जगी थीं और लगा था कि भाजपा का नेतृत्व बिहार को लेकर कुछ नया संकेत जारी करेगा और तब नीतीश से छुटकारा पाना या उनपर लगाम लगाना आसान हो जाएगा। बैठक शुरू होने के पहले ही बिहार भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में 243 में 200 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करेगी। इसे नीतीश कुमार पर एक और हमला माना गया और लगा कि इस बैठक में कुछ न कुछ नया तो होगा ही। 200 सीटों की तैयारी के जवाब में जदयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने घोषणा कर दी कि 200 सीटें क्या होती हैं, उनकी पार्टी तो 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। उसके बाद तो बिहार के भाजपा नेताओं को लगा कि पार्टी टकराव की ओर बढ़ेगी और कुछ जोड़-तोड़कर अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी। लेकिन बैठक में क्लाइमेक्स नहीं, बल्कि अंटी क्लाइमेक्स देखने को मिला। भाजपा ने घोषणा की कि वह 2024 का लोकसभा चुनाव और 2025 का विधानसभा चुनाव जदयू के साथ मिलकर ही लड़ेगी। सबसे ज्यादा स्पष्ट तो अमित शाह ही दिखे। उन्होंने बिहार के भाजपा के नेताओं और कार्यकर्त्ताओं को साफ शब्दों में कहा कि वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आलोचना करना बंद करें। उन्होंने कहा कि आपको नीतीश कुमार अथवा उनसे शिकायत हो, तो भी उसको सार्वजनिक नहीं करें, क्योंकि वे राजग के मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने और भी स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि हम नीतीश से अलग हुए, तो हमें विपक्ष में बैठना पड़ेगा, जैसा कि 2014 से 2017 तक हुआ। उन्होंने अपनी पार्टी के बिहारी नेताओं को याद दिलाया कि 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश से अलग होकर लड़ने के कारण हमें सिर्फ 53 सीटें ही मिली थीं।
यह एक तथ्य है कि बिहार भाजपा के अंदर नीतीश कुमार और जदयू के खिलाफ भारी रोष है। भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल के बयानों में वह रोष देखा जा सकता था। अग्निवीर के खिलाफ आंदोलन के दौरान भाजपा नेताओं पर बहुत हमले हुए। उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के आवासों पर भी हमले हुए, लेकिन नीतीश सरकार ने आंदोलनकारियों के खिलाफ वह सख्ती नहीं दिखाई, जो भाजपा के नेता चाहते थे। उसके पहले जातिगणना भी अधिकांश भाजपा नेताओं के गले नहीं उतर रही है। उन्हें लगता है कि यदि जातिगणना हो गई और सभी विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र की जातियों का सटीक आंकड़ा सामने आ गया, तो फि र उनकी राजनीति ही समाप्त हो जाएगी। भाजपा के अंदर अगड़ी जातियों का तबका इस आशंका से खासतौर से डरा हुआ है। उसे लगता है कि नीतीश सरकार को हटाकर ही जातिगणना को रोका जा सकता है। वैसे भी बिहार भाजपा के नेतृत्व से अगड़ी जाति के नेतागण लगभग बाहर कर दिए गए हैं। भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी है। भाजपा के दो उपमुख्यमंत्री भी नीतीश सरकार में हैं और वे दोनों के दोनों ओबीसी ही हैं। केन्द्र द्वारा नियुक्त बिहार के राज्यपाल भी ओबीसी ही हैं। और यदि जातिगणना होती है और जाति आधार पर टिकट का वितरण होता है, तो अगड़ी जातियों के उम्मीदवारों को टिकट पाने में काफी मशक्कत उठानी पड़ेगी। यही कारण है कि वे किसी भी कीमत पर नीतीश सरकार गिराना चाहते हैं। लेकिन अमित शाह ऐसे हैं, जो विपक्ष में बैठने की कीमत पर नीतीश सरकार को गिराना नहीं चाहते हैं। उनके लिए मामला सिर्फ बिहार का नहीं है, बल्कि लोकसभा चुनाव का भी है। वहां लोकसभा की 40 सीटें हैं, जिनमें 39 पर पिछले चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के उम्मीदवार ही जीते थे। उस जीत को फिर से दुहराने के लिए भाजपा को नीतीश का साथ जरूरी है। इस बात को अमित शाह से बेहतर कोई नहीं जानता। उनको पता है कि बिहार उत्तर प्रदेश नहीं है, जहां मोदी के नाम पर विधानसभा या लोकसभा के चुनाव जीते जा सकते हैं। बिहार की राजनीति के केन्द्र में अभी भी लालू हैं और लालू विराधी दो खेमे में बंटे हुए हैं। एक खेमा बीजेपी का है, तो दूसरा खेमा नीतीश कुमार का है। ये दोनों खेमे मिलकर ही लालू को हरा सकते हैं और 40 में से 39 सीटें जीत सकते हैं।
2011 की जाति जनगणना का आंकड़ा भले ही केन्द्र सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन अमित शाह को जरूर पता होगा कि बिहार में किन जातियों की संख्या कितनी है। उत्तर प्रदेश और बिहार में एक अंतर यह है कि जहां यूपी में अगड़ी जातियों के लोगों की संख्या 20 से 25 फीसदी के बीच है, वहीं बिहार में उनकी आबादी 12 से 15 फीसदी होगी। यूपी में दलित 22 फीसदी हैं, जबकि बिहार में 16 फीसदी। जाहिर है, बिहार में ओबीसी की कुल आबादी करीब 65 से 70 फ ीसदी के बीच होगी। अकेले हिन्दू ओबीसी आबादी 52 से 55 फ ीसदी के बीच होगी। राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना नहीं करवाने के कारण ओबीसी के बीच नरेन्द्र मोदी और भाजपा विरोधी सेंटिमेंट है। बिहार में जाति जनगणना हो जाने से यह सेंटिमेंट बहुत कमजोर हो जाएगा, लेकिन यदि बीजेपी नीतीश सरकार को गिराकर प्रदेश स्तर पर होने वाली जातिगणना को भी पलीता लगा देती है, तो फि र भाजपा की वहां अगले चुनावों में दुर्गति हो जाएगी। इस तथ्य से अमित शाह जरूर वाकिफ होंगे। उन्होंने 2017 में भाजपा का हश्र देख लिया है। यदि नीतीश की सरकार भाजपा के कारण गिरी, तो फिर बिहार में 2017 की स्थिति को बनाए रखना भी भाजपा के लिए मुश्किल हो जाएगा। उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में मुस्लिम विरोधी कार्ड भी नहीं चलता। यूपी में भाजपा के विरोधी अखिलेश यादव और मायावती- दोनों अपनी-अपनी जातियों के नेता बनकर रह गए हैं और उनकी अपनी जातियों से बाहर विश्वसनीयता शून्य हो गई है, लेकिन बिहार में नीतीश कुमार की अभी भी विश्वसनीयता बनी हुई है। बिहार में लालू यादव भी बिहार में यूपी के मुलायम की अपेक्षा हमेशा मजबूत बने रहे हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि बिहार में यादवों की संख्या बहुत ज्यादा है। करीब 14 फीसदी या उससे ज्यादा ही यादव आबादी होगी। दूसरी बात है कि ओबीसी के एक छोटे तबके में ही सही, लेकिन लालू यादव की वहां भी लोकप्रियता कायम है, जबकि मुलायम और उनके बेटे अखिलेश के साथ ऐसी बात नहीं है। तीसरी बात यह है कि लालू के उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव राजनैतिक रूप से ज्यादा तेजवान हैं, जबकि अखिलेश यादव में राजनैतिक समझ की कमी साफ देखी जा सकती है। ताजा घटना एक 28 साल की महिला को विधानपरिषद चुनाव का टिकट दे देना था, जबकि विधानपरिषद चुनाव लड़ने की न्यूनतम उम्र 30 साल है। यही कारण है कि भाजपा बिहार में नीतीश कुमार को नहीं छोड़ सकती। 2024 का चुनाव लड़ने के पहले भाजपा ऐसा कुछ नहीं करेगी, जिससे उसकी जीत की संभावना धूमिल होती हो।

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