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शकील अख्तर एजेंसी: सड़क के धरना प्रदर्शन तब असर डालते हैं जब वे जनता तक सही परिप्रेक्ष्य में पहुंचते हैं। लेकिन जैसा अभी दो दिन पहले राहुल गांधी ने महंगाई पर प्रदर्शन से पहले कहा कि इस मीडिया में हिम्मत नहीं है। सही बात है। मीडिया महंगाई, उससे पीड़ित लोग और उनके समर्थन में उठाई आवाज को दिखाने के बदले यह बता रहा था कि राहुल ने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में किस अक्षर से शुरू होने वाले शब्द को सबसे ज्यादा बोला और किस को कम। मगर यह नहीं बता रहा कि राहुल कितनी बार मीडिया के सामने आए। खासतौर से इन दो- ढाई साल के सबसे संकट भरे कोरोना काल में। और इसका तो जिक्र भी नहीं कर सकता है कि किसने आठ साल में एक बार भी मीडिया का सामना नहीं किया। मीडिया अपने पतन के निम्नतम स्तर पर है। कांग्रेस चाहे कितना ही बड़ा प्रदर्शन कर ले। उसकी नेता, महिला नेता प्रियंका गांधी को सड़क पर घसीटा जाए, सांसद दीपेन्द्र हुड्डा के कपड़े फाड़े जाएं। राहुल को उन्हें बचाने के लिए जाना पड़े। यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास के बाल खीचें जाएं, लात मारी जाए। कुछ हो जाए! मीडिया यही पूछता रहेगा कि विपक्ष कहां है? सड़क पर क्यों नहीं आता? जनता में यही नजरिया जाता है। पत्रकार तक जो दिन भर कांग्रेस के प्रदर्शन को कवर करते रहे शाम को घर जाते हुए जब कुछ खरीदते हैं और महंगा लगता है तो कहते हैं कि ये कांग्रेस कुछ करती क्यों नहीं? राहुल ने यही कहा। पहले भी कहते रहे हैं।यह मीडिया कायर है। अभी इसी अखबार ने लिखा और सही लिखा दलाल है। वह नहीं दिखाएगी। तो ऐसे में क्या हो? इन परिस्थितियों में खुद को चर्चा में लाने का एक ही तरीका है चुनाव जीतना। अभी स्थानीय निकायों के थे। मध्य प्रदेश में। कांग्रेस ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। महापौरों के डायरेक्ट हुए चुनाव में अगर ओवैसी और बीएसपी कांग्रेस के वोट काटकर भाजपा की मदद नहीं करते भाजपा और कांग्रेस दोनों की बराबर सीटें रहतीं। वहां 16 शहरों में महापौर है। पिछले चुनाव में सभी जगह भाजपा जीती थी। इस बार एक सीट पर बीएसपी और एक पर भाजपा के नए साथी ओवैसी ने कांग्रेस के इतने वोट काटे कि उसी की वजह से भाजपा वह दो सीट भी जीत गई। अगर वह दो भाजपा हारती तो फिर कांग्रेस और भाजपा के बराबर रहते। सात-सात। अभी 9 भाजपा 5 कांग्रेस एक आप और एक निर्दलीय को मिली। तो इस जीत से मध्य प्रदेश में खलबली मच गई। मीडिया इन खबरों को रोक नहीं पाई। उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिए इन खबरों को दिखाना और छापना पड़ा। और नतीजा जनता में खूब चर्चा शुरू हो गई। मीडिया चाहे जितना स्वामी भक्त हो जाए। मगर अभी देश में वह स्थिति नहीं आई है कि वह चुनाव के नतीजों के उलट नतीजे बताने लगे। वह रात के दिन, महंगाई को सस्ताई और चीन की घुसपैठ को कहां घुसा, कौन घुसा तो कहने लगा। मगर अभी जीते को हारा और हारे को जीता कहने की हिम्मत उसमें नहीं आई है। कभी आ भी सकती है। सरकार कहे हम पचास सीटें जीते, चुनाव आयोग कहे नहीं नहीं सर साठ और मीडिया कहे कि सत्तर से कम हैं ही नहीं। बचीं दस, उनका भी पता नहीं कि कौन जीता है। कहीं भाजपा ही जीती हो! मगर विपक्ष लोकतंत्र में होना चाहिए इसलिए उसने खुद ही दे दी हों। कुछ एंकर दान, दया शब्द का प्रयोग भी कर सकते हैं। लेकिन वह स्थिति आए इससे पहले कांग्रेस को कुछ चुनाव जीतना पड़ेंगे। कांग्रेस को इसलिए कि जीतने को तो ममता बनर्जी बंगाल, आम आदमी पार्टी पंजाब जीत गए मगर यह भाजपा की हार नहीं थी। भाजपा इन प्रदेशों में कभी रही ही नहीं। ऐसे ही तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना अन्य प्रदेशों में जहां बीजेपी का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं रहा वहां उसकी हार उसके केन्द्र के चुनाव पर की विपरीत असर नहीं डालती है। उसे असर पड़ता है वहां जहां कांग्रेस से उसकी डायरेक्ट फाइट होती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक और अभी इस साल जहां चुनाव होना हैं हिमाचल और गुजरात। राजनीतिक माहौल यहां से बनता है। कांग्रेस और खासतौर से राहुल पता नहीं क्यों चुनावों के महत्व को ठीक से नहीं समझ रहे। लोकतंत्र में इसके अलावा और क्या चीज है जो आपको जनता में स्वीकृति दिलाती है? मगर राहुल का रवैया चुनावों और उसके नतीजों को लेकर बहुत कैजुअल है। उत्तराखंड और पंजाब इसी चलताऊ रवैये की वजह से हारे। इस साल हिमाचल और गुजरात के बाद अगले साल 9 राज्यों में चुनाव होना हैं। इन राज्य में भी चार राज्य बड़े राज्य वह हैं जहां कांग्रेस का भाजपा के साथ सीधा मुकाबला है। इस साल दो राज्यों के चुनाव के बाद फिर उन चार राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के चुनाव ही 2024 लोकसभा से पहले का माहौल बनाएंगे। दो इस साल के और चार अगले साल के राज्यों में राहुल किन नेताओं के जरिए चुनाव लड़ेंगे यह महत्वपूर्ण है। गुटबाजी पर अभी से सख्ती लगाना होगी। और ऐसे किसी नेता को चुनावी राज्य में नहीं रहने देना होगा जो अपने राज्य में गुटबाज नेता के तौर पर जाना जाता हो। अपने राज्य का चुनाव हरवाने में जिसकी बड़ी भूमिका हो वह दूसरे राज्य में क्या एकता करवा पाएगा और चुनाव जितवाएगा? राहुल को राज्यसभा चुनाव में भरमा दिया गया था। बड़ी गलतियां करवा दीं। दोनों चुनावी राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में एक भी स्थानीय को टिकट नहीं दिया गया था। बाहर से लोगों को लाकर इन चुनावी राज्यों में जितवा दिया गया। क्या राजस्थान में जहां कांग्रेस की हालत सबसे ज्यादा खराब दिख रही है वहां सुरजेवाला, मुकुल वासनिक और प्रमोद तिवारी भी जिनका कम से कम उत्तर प्रदेश की अपनी विधानसभा में जनाधार है क्या राजस्थान में कांग्रेस की कुछ मदद कर पाएंगे? सुरजेवाला हरियाणा से चाहे जितने विधानसभा चुनाव हार गए हों राज्यसभा तो वहीं से लड़ना चाहिए था। अजय माकन को वहां लड़वाकर हरवाना किसकी साजिश थी? इन्दिरा गांधी होतीं तो राज्यसभा से इस्तीफा करवा देतीं। विश्वासघात को वे सहन नहीं करती थीं। और सही नहीं करती थीं। राहुल को उनके नजदीकी लोगों ने ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। भाजपा और संघ तो 2004 से राहुल को पप्पू साबित करने की मुहिम में लगे थे। मगर उन्हें सफलता तब मिली जब कांग्रेस के विभीषणों ने ही मीडिया से मिलकर राहुल का चरित्रहनन शुरू किया। भाजपा और मीडिया ने उनका आलू से सोना बनाने का वीडियो दिखाया। मगर कांग्रेस के मीडिया डिपार्टमेंट की तरफ से इसका कोई खंडन नहीं किया गया। भाजपा और मीडिया ने कहा कि मौन स्वीकृति चिन्हम्! वह वीडियो लोगों के दिमाग में ऐसा बैठा कि आज भी लोग यकीन करते हैं कि राहुल ने ऐसा कहा था। दूसरी तरफ अभी राहुल के केरल के एक बयान को उदयपुर की घटना से जोड़कर चलाते ही मीडिया डिपार्टमेंट की आधी बनी नई टीम ने तत्काल काउंटर किया। मीडिया माफी मांगने लगा। वीडियो गायब हो गया। जबकि आलू से सोने वाला अभी भी चल रहा है। राहुल के लिए 2024 आखिरी चुनाव है। और उसमें अच्छा प्रदर्शन करने के लिए जरूरी है कि इस साल के दो हिमाचल, गुजरात और अगले साल के नौ में चार मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक में से अधिकांश कांग्रेस जीते। बाकी एक तेलंगाना है जहां भी कांग्रेस ही सत्तारूढ़ क्षेत्रीय दल टीआरएस से फाइट में है। बाकी चार उत्तर पूर्व के छोटे राज्य त्रिपुरा, मेघालय, नागालेंड और मिजोरम हैं। मीडिया बार-बार सड़क, संघर्ष चिल्लाएगा। मगर दिखाएगा नहीं। सिर्फ कांग्रेस को उलझा कर रखेगा। सड़क पर राहुल और प्रियंका ने जितने संघर्ष किए हैं उतने बहुत कम नेताओं ने किए हैं। और जब पहले विपक्ष के नेता सड़क पर आते थे तो मीडिया का उन्हें पूरा समर्थन मिलता था। आज होस्टाइल (विरोधी) मीडिया के सामने संघर्ष करना बड़ी बात है। मगर हो गए। बहुत हो गए। और होते भी रहेंगे। मगर अब राहुल को एक तो अपनी नजदीकी टीम का सख्ती से रिव्यू करना चाहिए। दूसरे पूरा ध्यान चुनाव जीतने पर लगाना चाहिए।
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