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बिनय विश्वम एजेंसी: स्वतंत्रता के 75वें वर्ष के अवसर पर शासक पार्टी भाजपा की तरफ से असाधारण पहलकदमियां देखने में आ रही हैं। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करने के लिए वह जोर-शोर से कोशिशें कर रहे हैं। भारत के इतिहास की जरा-सी भी समझ रखने वाला हरेक व्यक्ति जानता है कि भाजपा के मातृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उससे जुड़े किसी संगठन की स्वतंत्रता आंदोलन में कोई भूमिका नहीं रही। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आरएसएस के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध तमाम ताकतों ने स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष से अपने आपको दूर रखा। उन्होंने उसे एक राजनीतिक कवायद का नाम दिया जो उनके सांस्कृतिक संगठन के लिए कोई सरोकार नहीं रखता था। वे राष्ट्रीय ध्वज को छूते तक नहीं थे। स्वतंत्रता के झंडे-तिरंगे ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान जो जन उभार पैदा किया था और इस झंडे को हाथ में उठाकर जब जनसमूह निकला करते थे तो उनमें आरएसएस और उसके अनुयायी कभी नहीं देखे गए। स्वतंत्रता के दशकों बाद भी अपने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों के प्रति समर्थक दृष्टिकोण के बारे में उन्होंने कभी कोई फिक्र नहीं की। जब देश की समूची आबादी ने 15 अगस्त 1947 को आजादी का उत्सव मनाया और तिरंगा फहराया, तो वह उससे दूर रहे। स्वतंत्रता के बाद 52 वर्षों तक आरएसएस-भाजपा ने कहीं भी अपने कार्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज को नहीं फहराया। इस संबंध में उनकी अपनी अजीबोगरीब व्याख्या थी। अब उनमें एक नई समझ आ गई है और लगता है कि आरएसएस और भाजपा राष्ट्रीय झंडे का उत्सव मनाने के लिए अति-उत्साहित हैं। प्रधानमंत्री ने स्वयं जनता से अपील की है कि 13 अगस्त से ही स्वतंत्रता दिवस उत्सव मनाना शुरू कर दें। 22 जुलाई को उन्होंने यह बताने में बड़ी दिलचस्पी ली कि इसी तारीख को 1947 में तिरंगे को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर मंजूर किया गया था। प्रधानमंत्री ने तमाम भारतीयों से चाहा कि हरेक घर पर राष्ट्रीय ध्वज फहरायें। राष्ट्रीय ध्वज का उत्सव मनाने के लिए सरकार ने अनेक कार्यक्रम बनाए। तिरंगे झंडे को बड़ी संख्या में बनाने के लिए भारत की ध्वज संहिता में उपयुक्त संशोधन किया गया। रिपोर्ट है कि भारतीय झंडे की सुचारू उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए बड़ी मात्रा में पोलिएस्टर कपड़े का चीन से आयात किया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी साबितशुदा महारत भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक नया इतिहास लिखने की दिशा में काम कर रही है। इतिहास के पुनर्लेखन का मतलब वास्तविक तथ्यों को छुपाना और भाजपा की पसंद के एक नये इतिहास को शानदार तरीके से पेश करना है। जब स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीन रंग के झंडे को राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक के तौर पर अपनाया, तिरंगे ने उसी समय से, 1931 से ही भारत के दिल में जगह बना ली थी। आरएसएस के संस्थापक नेताओं ने शुरू से ही तिरंगे पर आरएसएस की आपत्तियां उठाना शुरू कर दिया था। हेडगेवार और गोलवलकर ने राष्ट्रीय ध्वज के खिलाफ आरएसएस के निंदा-अभियान की अगुआई की। वे भगवा झंडे की वकालत कर रहे थे जिसके मध्य में श्श्ओमश्श् लिखा हो। उनकी दलील थी कि उनका झंडा भारतीय सांस्कृतिक लोकाचार का प्रतिनिधित्व करता है। उनके अनुसार, भगवा झंडा, जो महाभारत के समय से ही भारत के मंदिरों में फहराया जाता रहा है, वही देश के लिए स्वाभाविक झंडा होना चाहिए। जनवरी 1931 में जब कांग्रेस ने तिरंगा फ हराने की अपील की तो आरएसएस खुलकर उसके विरोध में आया। पहले सरसंघ संचालक हेडगेवार ने सभी शाखाओं को तिरंगे के बजाय भगवा झंडा फ हराने का निर्देश जारी किया। अपने पूरे इतिहास में आरएसएस राष्ट्रीय आंदेालन के संबंध में अपना एक समानान्तर दृष्टिकोण रखता आया है और राष्ट्रीय ध्वज के संबंध में उनका मतभेद उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। 14 जुलाई 1946 को नागपुर में स्वयंसेवकों के एक सम्मेलन में गोलवलकर ने आह्वान कियारू यह भगवा झंडा ही है जो समग्रता में भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह भगवान का मूर्तरूप है। हमारा पक्का विश्वास है कि अंत में पूरा राष्ट्र राष्ट्रीय ध्वज के सामने सम्मान से सिर झुकाऐगा। अपनी पुस्तक विचार नवनीत बंच ऑफ थॉट्स में शामिल शाश्वत आधार नामक लेख में उन्होंने लिखा है-उदाहरण के लिए हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा तय किया है। ऐसा उन्होंने क्यों किया? यह महज भटक जाने और नकल करने का मामला है।… यह झंडा किस तरह अस्तित्व में आया। फ्रांस की क्रांति के दौरान फ्रांसीसियों ने समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के तीन विचारों को व्यक्त करने के लिए अपने झंडे पर तीन रंग की पट्टियां लगाई थी…अतः हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी तीन पट्टियां एक किस्म का सम्मोहन रखती हैं।… अतरू कांग्रेस ने उसे अपना लिया। फिर इसकी व्याख्या तीन समुदायों-हिन्दुओं के लिए भगवा रंग, मुस्लिमों के लिए हरा रंग और अन्य सभी समुदायों के लिए सफेद रंग-की एकता को प्रदर्शित करने के तौर पर की गई। गैर-हिन्दू समुदायों में से, मुस्लिमों का खास तौर पर नाम लिया गया क्योंकि प्रख्यात नेताओं में से अधिकांश के दिमाग में मुस्लिम हावी था और उसका नाम लिए बगैर वे नहीं समझते कि हमारी राष्ट्रीयता पूर्ण हो सकती है। उपरोक्त सांप्रदायिकतापूर्ण जहरीली भ्रान्त-व्याख्या में तिरंगे के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण स्पष्ट नजर आता है। तिरंगा जिन वास्तविक एवं देशभक्ति पूर्ण विचारों का प्रतिनिधित्व करता है, वे जानबूझ कर उससे अपनी आंखें चुराते हैं। घृणा के दर्शन में शिक्षित एवं प्रशिक्षित वे हमेशा राष्ट्रीय ध्वज के प्रति एक किस्म की प्रतिहिंसा की भावना रखते आए हैं। इसके रंग भारतीय समाज की एकता एवं विविधता के सूचक हैं। एक महान राष्ट्र की महान जनता जिन मूल्यों की सांस्कृतिक, प्राकृतिक एवं दार्शनिक सुन्दरता को अंगीकार करती है, वह राष्ट्रीय ध्वज में आत्मसात है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज जिस लोकाचार का प्रतिनिधित्व करता है, आरएसएस-भाजपा उससे हमेशा एक भावनात्मक एवं राजनीतिक दूरी बनाते आए हैं। आरएसएस के मुख्यालय नागपुर में उन्होंने तिरंगा झंडा पहली बार 2002 में फहराया था जब अटलबिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने थे। अनेक अवसरों पर भाजपा के नेता राष्ट्रीय झंडे के प्रति निरादर प्रदर्शित करते आए हैं और भारत की ध्वज संहिता का उल्लंघन करते रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजस्थान के राज्यपाल के अंतिम संस्कार के समय राष्ट्रीय झंडे के आधे हिस्से को भाजपा के झंडों से ढंका हुआ देखा गया। प्रधानमंत्री समेत आरएसएस-भाजपा के किसी भी बड़े नेता को ध्वज संहिता के इस तरह उल्लंघन की कोई चिंता नहीं थी। अब वह तिरंगे की प्रशंसा में दिनरात गीत गाते नजर आते हैं। लोग इसका कारण जानते हैं। आरएसएस-भाजपा के अपने भगवा सपने हैं जिन्हें वह फिलहाल तिरंगे से ढंके रखना चाहते हैं। उनके लिए हरेक बात प्रचार के लिए होती है। राष्ट्र, राष्ट्रीय लोकाचार, राष्ट्रीय झंडा- इन्हें केवल एक मकसद से प्रोजेक्ट किया जा रहा है-राजनीतिक खेल और सत्ता से चिपके रहना।
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